श्रीमद भगवद गीता का अध्याय ३ - ६ से १० श्लोक अर्थ के साथ - हिंदी में | Bhagvad Geeta Adhyay 3 Shlok 6 to 10 with meanings in Hindi| The Spiritual Indians




 श्रीमद भगवद गीता का अध्याय ३ - ६ से १० श्लोक अर्थ के साथ - हिंदी में | Bhagvad Geeta Adhyay 3 Shlok 6 to 10 with meanings in Hindi




श्रीमद भगवद गीता का अध्याय ३ - ६ से १० श्लोक अर्थ के साथ - हिंदी में

ॐ श्री परमात्मने नमः।

  •          कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
    इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारःस उच्यते।। ६ ।

अर्थ - कुछ मुढ लोग जो की सिर्फ दुनियावालों
को दिखाने के लिए की, हमने हमारी इन्द्रियों
पर नियंत्रण कर लिया है। हठपूर्वक इन्द्रियों
की सारी इच्छायें रोकते हैं और मन में
निरंतर (continues) उन्हीं इच्छाओं के बारें

में सोचते रहते है। इस तरह का बर्ताव करने
वाले लोगों को मिथ्याचारी अर्थात दंम्भी
(दिल में कुछ और बर्ताव कुछ और करतें हैं।)
कहा जाता है।

  • यस्त्विन्र्दियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।
कर्मेन्द्रियैः कर्म योगमसक्तःस विशिष्यते ।। ७।।


अर्थ - हे अर्जुन, जो मनुष्य लोगों को दिखाने के
लिए
नहीं बल्कि अपने पूर्ण मनसे अपने इन्द्रियों
पर नियंत्रण करता है और अपने इच्छाओं
के प्रति आसक्त नहीं होता और अपने धर्म

के अनुसार कर्म करते रहता है और तो
और फल की इच्छा किए बिना किया जाने
वाला कर्म निष्काम कर्म सबसे श्रेष्ठ होता
है। ऐसा मनुष्य ही सबसे श्रेष्ठ होता है।




  • नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरिरयात्रापि च ते न प्रसिध्द्यदकर्मणः।। ८।।


अर्थ - तु सिर्फ अपना कर्म करते रह जो कर्म तेरे
धर्म के अनुसार हो। शास्त्रों के अनुसार
इस कर्म के लिए क्या बताया गया है। इस
के बारे में तु मत सोच। हे मनुष्य, (अर्जुन)
तुमे हर वक्त कर्म करते ही रहना चाहिए।
बिना कर्म किए तु तेरी जरूरतें पुरी भी
नहीं कर सकता जैसे कि, जिवित रहने
के लिए तुझे खाना खाना जरूरी है। खाने
के लिए कर्म याने की मेहनत जरुरी है।
इसी प्रकार तुम्हारी कोनसी भी जरुरतों
के लिए कर्म करना ही होगा।


  • यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्ग समाचार।। ९।।


अर्थ - अपने- अपने धर्म अनुसार अगर हम
कर्म करते हैं | तो हम जादा तर उसके फल
के बारे में नही सोचते | लेकन जब हम उसके
अलावा कुछ और जैसे की किसी की मददत
करते हैं | तो उसकी जरूरत पूरी करने से
हमे क्या मिलेगा ये सोचते ही रहते हैं | ये
सोचना ही हमे कर्म के बन्धन में डालता हैं|
किन्तु हे कौन्तेय, तु सिर्फ अपना कर्म करते
जा उसका फल तुझे अच्छा मिलेगा या बुरा
मिलेगा इस बारे मत सोच |

  • सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः |
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोSस्त्विष्टकामधुक् || १०||


अर्थ - सृष्टी की निर्मिती के वक्त ब्रम्हदेवने एक यज्ञ
किया और उसी यज्ञ से सृष्टीका आरंभ किया
और कहा की ; उसी यज्ञ से तुम प्रगती भी करो
और तुम्हारा वंश आगे बढे और ये यज्ञ तुम्हारा
इच्छित भोग प्रदान (देने वाला ) करनेवीला हो|
उसी प्रकार तुम भी यज्ञ करके अपनी इच्छायें
पूरी कर ले|


         गोपाल कृष्ण भगवान की जय। ।    

        । ।  गीता माता के जय । ।                    

  

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